अथ प्रथमोपदेश: ( पहला अध्याय )
अथ षट्कर्म साधना प्रकरणम् ( अब षट्कर्म योग साधना का वर्णन किया जाता है ) घेरण्ड संहिता के इस पहले अध्याय में केवल षट्कर्मों का ही वर्णन किया गया है । महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्म को योग के पहले अंग के रूप में माना है । इनका मानना है कि साधक को पहले शरीर की शुद्धि करनी चाहिए और उसके बाद अन्य योग साधना । अतः प्रस्तुत है घेरण्ड संहिता का प्रथम उपदेश ( अध्याय ) ।॥
घटस्थयोगकथनम्॥
एकदा चन्डकापालिर्गत्वा घेरण्डकुट्टिरम् । प्रणम्य विनयाद् भक्त्या घरेण्डं परिपृच्छति ।। 1 ।।
पदच्छेद: एकदा, चन्डकापालिर्गत्वा, घेरण्डकुट्टिरम्, ।, प्रणम्य, विनयाद्, भक्त्या, घरेण्डं, परिपृच्छति, ।।, 1, ।।! भावार्थ :- एक दिन चन्डकापालि नाम का एक राजा योगी महर्षि घेरण्ड की कुटिया में जाते हैं और महर्षि घेरण्ड को भक्तिपूर्ण भाव से प्रणाम करते हुए उनसे पूछते हैं ।।
घटस्थ योग कथन घटस्थयोगं योगेश तत्त्वज्ञानस्य कारणम् । इदानीं श्रोतुमिच्छामि योगीश्वर वद प्रभो ।। 2 ।।।।
पदच्छेद: एकदा, चन्डकापालिर्गत्वा, घेरण्डकुट्टिरम्, ।, प्रणम्य, विनयाद्, भक्त्या, घरेण्डं, परिपृच्छति, ।।, 1, ।।! भावार्थ :- हे योगीश्वर ! ( योग के स्वामी ) इस शरीर के द्वारा की जाने वाली योग साधना जिससे तत्त्वज्ञान की प्राप्ति होती है । मैं उस योग साधना को आपसे सुनना चाहता हूँ । हे योगीश्वर ! आप मुझे उस योग विद्या का उपदेश देने की कृपा करें ।
साधु साधु महाबाहो यन्मान्त्वं परिपृच्छसि । कथयामि हि ते वत्स सावधानाऽवधारय ।। 3 ।।।।।।
पदच्छेद: एकदा, चन्डकापालिर्गत्वा, घेरण्डकुट्टिरम्, ।, प्रणम्य, विनयाद्, भक्त्या, घरेण्डं, परिपृच्छति, ।।, 1, ।।! भावार्थ :- हे महान बल वाले महावीर ! तुम्हे बहुत बहुत साधुवाद है जो तुमने मुझसे इस विषय के बारे में पूछ रहे हो । अतः हे वत्स ( पुत्र ) अब मैं उस योगविद्या का उपदेश करूँगा । तुम पूरी तरह से एकाग्रचित्त होकर उसे धारण करना अथवा सुनना ।
नास्ति मायासम: पाशो नास्ति योगात्परं बलम् ।
नास्ति ज्ञानात्परो बन्धुर्नाहङ्कारात्परो रिपु: ।। 4 ।।
भावार्थ :- माया ( धन- वैभव, पत्नी- पुत्र आदि ) से बड़ा कोई भी दुःख नहीं है, योग से बड़ा कोई भी बल ( ताकत ) नहीं है, ज्ञान से बड़ा कोई भी मित्र नहीं है और अहंकार से बड़ा कोई भी दुश्मन नहीं है ।
विशेष :- इस श्लोक में माया को सबसे बड़ा दुःख, योग को सबसे बड़ा बल, ज्ञान को सबसे बड़ा मित्र ( सहायक ) व अहंकार को सबसे बड़ा दुश्मन बताया है ।
अभ्यासात्कादिवर्णानि यथा शास्त्राणि बोधयेत् । तथा योगं समासाद्य तत्त्वज्ञानञ्च लभ्यते ।। 5 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार ‘क’ आदि वर्णमाला ( अक्षरों ) को जानने से हमें शास्त्रों का ज्ञान हो जाता है । ठीक उसी प्रकार योग में सिद्धि अथवा सफलता प्राप्त करने से साधक को तत्त्वज्ञान अर्थात् यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है ।
सुकृतैर्दुष्कृतै: कार्यैर्जायते प्राणिनां घट: । घटादुत्पद्यते कर्म घटियन्त्रं यथा भ्रमेत् ।। 6 ।।
भावार्थ :- मनुष्य का शरीर अच्छे व बुरे कर्मों का परिणाम है अर्थात् इस मानव शरीर की उत्पत्ति अच्छे व बुरे कर्मों से ही होती है । जिस प्रकार घटियन्त्र ( पुराने समय में बैलों के सहारे जमीन से पानी निकालने वाला यन्त्र जिसे रहट कहा जाता था ) ऊपर से नीचे की ओर घूमता रहता है । उसी प्रकार हमारा शरीर कर्म करता रहता है और उन्हीं कर्मों के कारण शरीर की उत्पत्ति होती रहती है । यह एक प्रकार का जीवन चक्र है जो रहट की तरह लगातार घूमता रहता है ।
ऊर्ध्वाधो भ्रमते यद्वद् घटियन्त्रं गवां वशात् । तद्वत्कर्मवशाज्जीवो भ्रमते जन्ममृत्युभि: ।। 7 ।।
भावार्थ :- जिस तरह घटियन्त्र के लगातार घूमने के कारण उसके पात्र ( जिनमें पानी आता है ) ऊपर से नीचे की ओर घूमते रहते हैं । ठीक उसी तरह मनुष्य भी अपने कर्मों ( अच्छे व बुरे अथवा कृष्ण व शुक्ल कर्म ) के कारण जन्म व मृत्यु के चक्कर लगाता रहता है ।
आमकुम्भमिवाम्भस्थो जीर्यमाण: सदा घट: । योगानलेन सन्दह्य घटशुद्धिं समाचरेत् ।। 8 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार कच्चे घड़े में पानी डालने से वह निरन्तर गलना शुरू हो जाता है । उसी कच्चे घड़े के समान मनुष्य का शरीर की प्रतिक्षण कमजोर होता रहता है । उस शरीर रूपी घड़े को योग रूपी अग्नि में तपाने से वह पूरी तरह से शुद्ध हो जाता है । जिस प्रकार घड़े को अग्नि में तपाने के बाद वह पानी से गलता नहीं है । ठीक उसी प्रकार इस श्लोक में योग को अग्नि का रूप और शरीर को घड़े का रूप माना गया है ।
सप्तांग योग ( योग के सात अंग )
शोधनं दृढता चैव स्थैर्यं धैर्यञ्च लाघवम् । प्रत्यक्षञ्च निर्लिप्तञ्च घटस्य सप्तसाधनम् ।। 9 ।।
भावार्थ :- शरीर को परिपक्व करने के लिए योग के सात अंगों की चर्चा की गई है । जो इस प्रकार हैं – शोधन, दृढता, स्थिरता, धैर्य ( धीरता ), लघुता ( हल्कापन ), प्रत्यक्षीकरण व निर्लिप्तता । अगले श्लोकों में इन सभी अंगों से सम्बंधित यौगिक क्रियाओं का वर्णन किया गया है ।
सप्त ( योग ) साधनों के लाभ
षट्कर्मणा शोधनञ्च आसनेन भवेद्दृढम् । मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता ।। 10 ।। प्राणायामाल्लाघवञ्चध्यानात् प्रत्यक्षमात्मनि । समाधिना च निर्लिप्तं मुक्तिरेवं न संशय: ।। 11 ।।
भावार्थ :- षट्कर्म अर्थात् छ: शुद्धि क्रियाओं के अभ्यास से शुद्धि, आसनों के अभ्यास से मजबूती, मुद्राओं से स्थिरता, प्रत्याहार से धैर्य ( धीरता ), प्राणायाम से हल्कापन, ध्यान से प्रत्यक्षीकरण ( साक्षात्कार ) और समाधि से निर्लिप्तता ( मुक्ति ) की प्राप्ति होती है । इनमें किसी प्रकार का कोई सन्देह ( शक ) नहीं है । विशेष :- योग के सात अंगों से साधक को अलग- अलग प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है । जिनको परीक्षा की दृष्टि से अति उपयोगी माना जाता है । इसके लिए हम यहाँ पर इनको सार रूप में भी लिख रहे हैं ।
सप्त ( योग ) साधनों के लाभ
षट्कर्मणा शोधनञ्च आसनेन भवेद्दृढम् । मुद्रया स्थिरता चैव प्रत्याहारेण धीरता ।। 10 ।। प्राणायामाल्लाघवञ्चध्यानात् प्रत्यक्षमात्मनि । समाधिना च निर्लिप्तं मुक्तिरेवं न संशय: ।। 11 ।।
भावार्थ :- षट्कर्म अर्थात् छ: शुद्धि क्रियाओं के अभ्यास से शुद्धि, आसनों के अभ्यास से मजबूती, मुद्राओं से स्थिरता, प्रत्याहार से धैर्य ( धीरता ), प्राणायाम से हल्कापन, ध्यान से प्रत्यक्षीकरण ( साक्षात्कार ) और समाधि से निर्लिप्तता ( मुक्ति ) की प्राप्ति होती है । इनमें किसी प्रकार का कोई सन्देह ( शक ) नहीं है । विशेष :- योग के सात अंगों से साधक को अलग- अलग प्रकार की सिद्धि प्राप्त होती है । जिनको परीक्षा की दृष्टि से अति उपयोगी माना जाता है । इसके लिए हम यहाँ पर इनको सार रूप में भी लिख रहे हैं । 1=षट्कर्म = शोधन 2=आसन = दृढता ( मजबूती ) 3=मुद्रा = स्थिरता 4=प्रत्याहार = धैर्य ( धीरता ) 5=प्राणायाम = लघुता ( हल्कापन ) 6=ध्यान = प्रत्यक्षीकरण ( साक्षात्कार ) 7=समाधि = निर्लिप्तता ( मुक्ति या मोक्ष )
षट्कर्म वर्णन
धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिर्लौलिकी त्राटकं तथा । कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत् ।। 12 ।।
भावार्थ :- योग साधक को धौति, बस्ति, नेति, लौलिकी ( नौलि ), त्राटक व कपालभाति नामक इन छ: प्रकार की शुद्धि क्रियाओं का अभ्यास करना चाहिए । विशेष:- महर्षि घेरण्ड ने षट्कर्मों को योग के पहले अंग के रूप में मान्यता दी है । उनका कहना है कि योग साधक को सबसे पहले षट्कर्मों द्वारा अपने शरीर का शुद्धिकरण करना चाहिए । इसके बाद ही साधक अन्य प्रकार की योग साधना करने के योग्य होता है । षट्कर्मों को मुख्य रूप से प्रचारित करने का श्रेय भी घेरण्ड ऋषि को ही जाता है । इन्होंने छ: षट्कर्मों के भी अलग- अलग प्रकारों का वर्णन करके इसको घेरण्ड संहिता के एक पूरे अध्याय का रूप देकर इनकी उपयोगिता को दर्शाया है ।
धौति के प्रकार
अन्तर्धौतिर्दन्तधौतिर्हृद्धौतिर्मूलशोधनम् । धौतिं चतुर्विधां कृत्वा घटं कुर्वन्ति निर्मलम् ।। 13 ।। ।।
भावार्थ :- इस श्लोक में धौति के चार प्रकार बताते हुए कहा है कि अन्तर्धौति, दन्तधौति, हृदयधौति व मूलशोधन यह धौति के चार प्रकार हैं । साधक को इनका अभ्यास करके अपने शरीर की शुद्धि करनी चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में षट्कर्म के पहले अंग अर्थात् धौति के चार प्रकारों का वर्णन किया गया है । धौति मुख्य रूप से चार प्रकार की होती है और यदि धौति के इन चार प्रकारों के भी अलग- अलग प्रकारों या भेदों की बात करें तो इनकी कुल संख्या तेरह ( 13 ) हो जाती है । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण जानकारी है । जिसे ऊपर दिये गए डायग्राम द्वारा आसानी से समझा जा सकता है ।।
अन्तर्धौति के प्रक
वातसारं वारिसारं वह्निसारं बहिष्कृतम् । घटस्य निर्मलार्थाय अन्तधौतिश्चतुर्विधा ।। 14 ।।। ।।
भावार्थ :- शरीर को शुद्ध करने के लिए साधक को अन्तर्धौति की निम्न चार प्रकार अथवा विधियों ( वातसार, वारिसार, वह्निसार ( अग्निसार ) और बहिष्कृत ) का अभ्यास करना चाहिए । विशेष :- धौति के चार प्रकारों में सबसे पहले प्रकार अर्थात् अन्तर्धौति के भी चार भेद बताये गये हैं । इनके क्रम व संख्या को परीक्षा की दृष्टि से बहुत उपयोगी माना जाता है । अतः विद्यार्थी इनको अच्छी प्रकार से याद करें । आगे के श्लोकों में इन सभी की विधि व इनसे मिलने वाले लाभ बताये जायेंगे ।
।।वातसार धौति विधि
काकचञ्चुवदास्येन पिबेद् वायुं शनै:शनै: । चालयेदुदरं पश्चाद्वर्त्मना रेचयेच्छनै: ।। 15 ।।
भावार्थ :- साधक को अपने मुहँ को कौवे की चोंच की तरह बनाकर उससे धीरे- धीरे से प्राणवायु को पीना चाहिए अर्थात् प्राणवायु को शरीर के अन्दर ग्रहण करना चाहिए । फिर अपने पेट को चलाते हुए ( आगे- पीछे या दायें से बायीं ओर घुमाते हुए ) उस वायु को पीछे अर्थात् गुदा मार्ग से धीरे- धीरे बाहर निकालना चाहिए । विशेष :- वातसार को याद रखने के लिए विद्यार्थी वातसार शब्द को पहले दो अलग- अलग भागों वात और सार में बाट ले । वात का अर्थ है वायु और सार का अर्थ है उसका निचोड़ । अब इसे आसानी से याद किया जा सकता है कि वायु को पीकर उसको निचोड़ देना चाहिए । निचोड़ने का अर्थ होता है उसके उपयोगी तत्त्व को निकाल लेना । जब हम किसी पदार्थ के आवश्यक तत्त्व को निकाल लेते हैं तो उसके बाद उस पदार्थ का क्या करते हैं ? निश्चित रूप से हम उसे अवशिष्ट पदार्थ की तरह फेंक देते हैं । इसे एक उदाहरण से समझते हैं । जैसे एक नींबू के रस को निचोड़ने के बाद जिस प्रकार उसके छिलके को हम फेंक देते हैं । ठीक उसी प्रकार जब हमने वायु को पेट में चलाकर उसके सार को ग्रहण कर लेते हैं तो उसे भी हम निश्चित रूप से बाहर ही फेंकेते हैं । और जिस वायु का शरीर के भीतर प्रयोग कर लिया गया हो तो उसका निष्कासन तो नीचे अर्थात् गुदा मार्ग से ही किया जाएगा । ऐसे ही हम भोजन को ग्रहण करके उसके रस को पचाकर बाकी बचे हुए अवशिष्ट को गुदा मार्ग द्वारा ही बाहर निकाल देते हैं । इस उदाहरण द्वारा आप इसकी विधि को आसानी से याद रख सकते हैं ।
वातसार धौति लाभ
वातसारं परं गोप्यं देहनिर्मलकारणम् । नाशयेत्सकलान् रोगान् वह्निमुद्दीपयेतथा ।। 16 ।।
भावार्थ :- वातसार अत्यन्त गुप्त रखने वाली यौगिक क्रिया है । इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर स्वच्छ ( मल रहित ) हो जाता है । यह शरीर के सभी रोगों को नष्ट करती है और जठराग्नि ( पाचन क्रिया ) को तीव्र अर्थात् मजबूत करती है ।
वारिसार धौति विधि
आकण्ठं पूरयेद्वारि वक्त्रेण च पिबेच्छनै: । चालयेदुदरेणैव चोदराद्रेचयेदध: ।। 17 ।। ।।
भावार्थ :- जल ( पानी ) को मुहँ द्वारा धीरे- धीरे इतनी मात्रा में पीना चाहिए जिससे कि वह गले तक आ जाये अर्थात् इतना पानी पीना चाहिए कि वह गले तक आ जाये । इसके बाद अपने पेट को चलाते हुए ( आगे-पीछे अथवा दायें से बायें ) उस पानी को अधोमार्ग ( गुदा द्वार ) से बाहर निकाल दें । विशेष :- वारिसार की विधि और वातसार की विधि दोनों ही पूरी तरह से मिलती जुलती ही है । इसको याद रखने के लिए विद्यार्थी को केवल इसके पहले शब्द को समझने की आवश्यकता है । वातसार और वारिसार शब्दों में पीछे के दोनों शब्द ( सार ) समान हैं । वातसार में वात का अर्थ होता है वायु और वारिसार में वारि शब्द का अर्थ जल अथवा पानी होता है । बाकी की विधि बिलकुल समान है । वातसार में यह क्रिया वायु के द्वारा पूरी होती है और वारिसार में यह क्रिया पानी के द्वारा पूरी की जाती है । बाकी सब समान विधि समान होती है । अतः सभी छात्रों को केवल वात ( वायु ) और वारि ( जल ) शब्दों को ही याद रखना है ।
वारिसार धौति लाभ
वारिसारं परं गोप्यं देहनिर्मलकारणम् । साधयेत्तं प्रयत्नेन देवदेहं प्रपद्यते ।। 18 ।।
भावार्थ :- वारिसार क्रिया भी वातसार की तरह ही अत्यन्य गोपनीय यौगिक क्रियाओं में से एक है । इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर पूरी तरह से स्वच्छ ( विजातीय द्रव्यों से रहित ) हो जाता है । पूरे मनोभाव से इसका अभ्यास करने से साधक का शरीर देवताओं के समान दिव्य रूप ( अत्यन्य मनमोहक ) वाला हो जाता है ।
वह्निसार / अग्निसार धौति विधि
नाभिग्रन्थिं मेरुपृष्ठे शतवारञ्च कारयेत् । अग्निसार इयं धौतिर्योगिनां योगसिद्धिदा ।। 19 ।।
भावार्थ :- वह्निसार अपनी नाभि ( पेट के बीच में स्थित खड्डानुमा स्थान ) को मेरुदण्ड ( कमर ) के साथ सौ बार लगाने ( पेट को सौ बार आगे- पीछे करना ) को अग्निसार ( वह्निसार ) धौति क्रिया कहते हैं । यह क्रिया योगियों को साधना में सिद्धि प्रदान करवाती है । विशेष :- इस धौति क्रिया में दो नामों का प्रयोग किया गया है । एक वह्निसार और दूसरा अग्निसार । इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही होता है । वह्नि और अग्नि दोनों शब्दों का प्रयोग जठराग्नि के लिए किया जाता है । इस क्रिया का प्रचलित नाम अग्निसार है । जिसका प्रयोग ज्यादा किया जाता है । वह्नि शब्द का अर्थ भी अग्नि ही होता है । अतः वह्निसार और अग्निसार एक ही क्रिया है । इसकी विधि को हम थोड़ा सा प्रयोगात्मक स्तर पर समझने का प्रयास करते हैं । जिससे इससे सम्बंधित भ्रान्ति का निवारण किया जा सके । अपनी नाभि को कम से कम सौ बार अपनी कमर के साथ लगाना अग्निसार होती है । इसके लिए जो पूरी विधि है उसके लिए साधक पहले अपने श्वास को बाहर छोड़कर बाहर ही रोक दे । इसके बाद अपने पेट को आगे व पीछे की ओर चलाना ( धकेलना ) चाहिए । प्रारम्भ में कोई भी साधक सौ बार इसका अभ्यास एक ही श्वास में करने में समर्थ नहीं होता । इसलिए जब तक सौ बार यह क्रिया नहीं हो जाती तब तक इसका अभ्यास करते रहना चाहिए । ऐसा कुछ समय करने के बाद अर्थात् अभ्यास मजबूत होने पर साधक एक श्वास में ही इसे सौ बार आगे- पीछे करने में समर्थ हो जाता है ।
वह्निसार / अग्निसार धौति लाभ
उदरामयजं त्यक्तवा जठराग्निं विवर्द्धयेत् । एषा धौति परा गोप्या देवानामपि दुर्लभा । केवलं धौतिमात्रेण देवदेहो भवेद् ध्रुवम् ।। 20 ।।
भावार्थ :- अग्निसार धौति का अभ्यास करने से साधक के उदर ( पेट ) से सम्बंधित सभी रोग दूर हो जाते हैं और जठराग्नि तीव्र हो जाती है । यह क्रिया देवताओं के लिए भी दुर्लभ ( कठिनता से प्राप्त होने वाली ) है साथ ही यह क्रिया अत्यन्त गुप्त रखने योग्य है । केवल इसी क्रिया का अभ्यास करने से साधक का शरीर निश्चित रूप से देवताओं के समान दिव्य तेज रूप वाला हो जाता है ।
बहिष्कृत धौति विधि
काकीमुद्रां शोधयित्वा पूरये दुदरम्महत् ।। 21 ।। धारयेदर्धयामन्तु चालये द धोवर्त्मना । एषा धौति: परागोप्या न प्रकाश्या कदाचन ।। 22 ।।
भावार्थ :- काकीमुद्रा ( कौवे के समान मुख करके ) को साधकर ( उसमें पारंगत होकर ) अपने उदर ( पेट ) में वायु को मुख के द्वारा अन्दर भरना चाहिए । अब उस वायु को आधे प्रहर अर्थात् डेढ़ घण्टे तक पेट के अन्दर ही रोककर रखे और इसके बाद उस रोकी हुई वायु को गुदा मार्ग से बाहर निकाल देना चाहिए । इस धौति क्रिया के भी अति गोपनीय होने के कारण इसको कभी भी सार्वजनिक नहीं करना चाहिए । विशेष :- इस बहिष्कृत धौति क्रिया की विधि भी बिलकुल वातसार धौति क्रिया की तरह ही होती है । इसमें व वातसार की विधि में केवल कुम्भक ( वायु को रोकने ) का ही अन्तर है । इसके अलावा यह दोनों ही विधियाँ समान है । इसको याद रखने के लिए विद्यार्थी को बहिष्कृत शब्द के अर्थ को समझना आवश्यक है । बहिष्कृत का अर्थ होता है बाहर निकाल देना अथवा बाहर फेंक देना । जब हम किसी वस्तु का प्रयोग कर लेते हैं तो उसके बचे हुए अवशेष या अवशिष्ट को बाहर कूड़े में फेंक देते हैं । ठीक उसी प्रकार जब हम वायु को पीकर उसको शरीर में रोककर उसका उपयोग कर लेते हैं तो उसके बाद वह अवशिष्ट रूप में ही बचता है और पेट में बचे हुए अवशिष्ट को हम गुदा मार्ग से ही बाहर निकालते हैं । इसलिए विद्यार्थी इस प्रकार इसे आसानी से याद रख सकते हैं । इस क्रिया में वायु को डेढ़ घंटे तक शरीर के अन्दर रोकने की जो बात कही गई है उसका अर्थ यह नहीं है कि हम वायु को पेट के अन्दर डेढ़ घण्टे तक रोकने के बाद अपनी श्वास- प्रश्वास की क्रिया को रोक देते हैं । ऐसा करना सम्भव हो सकता है लेकिन उसके लिए साधक को बहुत वर्षों की साधना द्वारा अपने प्राण को साधना पड़ेगा । जो कि यहाँ षट्कर्म के उपदेश में न्याय संगत नहीं लगता । अगर ऐसा होता तो इस धौति का अभ्यास घेरण्ड ऋषि प्राणायाम के बाद में करने का उपदेश करते । जबकि उन्होंने इसे साधना के प्रारम्भ में ही करने की बात कही है । मेरा ऐसा मानना है कि यहाँ पर वायु को डेढ़ घंटे तक शरीर के अन्दर ही धारण करने की बात से अभिप्राय यह है कि जिस वायु को साधक काकीमुद्रा द्वारा ग्रहण करता है उस वायु को वह अपने पेट में ही स्थिर करके उसकी धीरे- धीरे चलाता रहता है और इस दौरान अपनी श्वास- प्रश्वास की प्रक्रिया को भी जारी रखता है । वह केवल उसी वायु को अन्दर रोककर रखता है जिसे काकीमुद्रा द्वारा अन्दर भरा गया था । इसके अलावा जो श्वसन क्रिया नासिका द्वारा होती है वह निर्बाध गति से चलती रहती है । उसका इस वायु ( काकीमुद्रा वाली ) से कोई सम्बन्ध नहीं होता ।
प्रक्षालन विधि
नाभिमग्ने जले स्थित्वा नाडीशक्तिं विसर्जयेत् । कराभ्यां क्षा लयेन्नाडीं यावन्मलविसर्जनम् ।। 23 ।।
भावार्थ :- नाभि तक के गहरे पानी में उत्कटासन में बैठकर अपनी शक्तिनाड़ी ( मलद्वार ) को बाहर की ओर निकालकर दोनों हाथों से उसको अच्छी तरह से तब तक साफ करना चाहिए जब तक कि उसके अन्दर का सारा मल ( अवशिष्ट पदार्थ ) पूरी तरह से साफ न हो जाये । विशेष :- इस प्रक्षालन विधि को बहिष्कृत धौति के दूसरे प्रकार के रूप में माना जाता है साथ ही इसकी विधि बस्ति क्रिया से मिलती जुलती है । इस विधि का यहाँ पर वर्णन करने का उद्देश्य यही हो सकता है कि जब बहिष्कृत धौति से अन्दर रुकी हुई वायु को डेढ़ घंटे के बाद जब बाहर निकाला जाता है तो उससे अवश्य मलद्वार के पास कुछ मल जमा हो जाता होगा । जिसको साफ करने के लिए यहाँ पर इस क्रिया का करना आवश्यक हो जाता है । इस प्रक्षालन की विधि की गणना धौति के अंग के रूप में नहीं की जाती ।
प्रक्षालन क्रिया लाभ
तावत्प्रक्षाल्य नाडीञ्च उदरे वेशयेत्पुनः । इदम्प्रक्षालनं गोप्यं देवानामपि दुर्लभम् । केवलं धौतिमात्रेण देवदेहो भवेद् ध्रुवम् ।। 24 ।।
भावार्थ :- उसके बाद शक्तिनाड़ी ( मलद्वार ) को साफ करके पुनः शरीर के अन्दर स्थित कर देना चाहिए । यह क्रिया अति गोपनीय होने के कारण इसे देवताओं के लिए भी यह कठिनाई से प्राप्त होने वाली माना जाता है । केवल इसी धौति क्रिया से साधक का शरीर दिव्य शरीर से युक्त हो जाता है ।
25
यामार्द्धं धारणे शक्तिं यावन्न धारयेन्नर: । बहिष्कृत महद्धौतिस्तावच्चैव न जायते ।। 25 ।।
भावार्थ :- जब तक मनुष्य आधे प्रहर ( डेढ़ घंटे ) तक वायु को पेट के अन्दर धारण करने के योग्य नहीं हो जाता तब तक वह बहिष्कृत नामक महाधौति को करने में समर्थ नहीं हो सकता अथवा तब तक उसे इस धौति से कोई लाभ नहीं मिलता । अतः पहले साधक को पेट के अन्दर वायु को डेढ़ घंटे तक स्थिर रखने की योग्यता विकसित करनी चाहिए । विशेष :- इस श्लोक में बहिष्कृत धौति को महाधौति कहकर सम्बोधित किया गया है । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी हो सकता है । परीक्षा में यह पूछा जा सकता है कि किस धौति की महाधौति कहा गया है ? जिसका उत्तर है बहिष्कृत धौति । अतः विद्यार्थी इसे याद करलें ।
दन्तधौति के प्रकार
दन्तमूलं जिह्वामूलं रन्ध्रञ्च कर्णयुग्मयो: । कपालरन्ध्रम्पञ्चैतै: दन्तधौति: विधीयते ।। 26 ।।
भावार्थ :- दाँतों के मूल भाग अर्थात् उनकी जड़ों को साफ करना, जिह्वा के मूलभाग की सफाई करना, दोनों कानों के छिद्रों को साफ करना और सिर के अग्र ( ऊपरी ) भाग की शुद्धि करना यह दन्तधौति के पाँच प्रकार बताये गये हैं । जिनको क्रमशः दन्तमूल धौति, जिह्वामूल धौति, कर्णरन्ध्र धौति व कपालरंध्र धौति कहा जाता है । विशेष :- दन्तधौति के विषय में प्रायः बहुत सारे विद्यार्थियों में एक भ्रम की स्थिति बन जाती है कि दन्तधौति के कितने प्रकार होते हैं ? इसका उत्तर ऋषि घेरण्ड द्वारा इसके श्लोक में ही दिया गया है । जहाँ पर उन्होंने ‘पञ्चैते’ शब्द का प्रयोग किया है । ‘पञ्चैते’ संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है पाँच । अतः यहाँ पर श्लोक में ही उन्होंने इसको स्पष्ट कर दिया है कि दन्तधौति के पाँच प्रकार होते हैं । लेकिन जैसे ही हम इनकी गणना करते हैं तो इनकी संख्या चार ( 4 ) मिलती है । असली भ्रम यहाँ से शुरू होता है । जिसका निवारण दन्तधौति के तीसरे स्थान पर दी गई धौति ( कर्णरन्ध्र धौति ) के ऊपर ध्यान देने मात्र से ही हो जाता है । कर्णरन्ध्र धौति में हमारे दोनों कानों को शामिल किया जाता है । जिससे इनकी संख्या पाँच होती है । वैसे यदि कर्णरन्ध्र धौति को एक मानते हैं तो यह चार ही दिखती हैं । लेकिन कर्णरन्ध्र में दोनों कानों की शुद्धि को शामिल किया गया है । जिससे दन्तधौति संख्या में कुल पाँच प्रकार की होती है । इसी प्रकार विद्यार्थी धौति के जब सभी प्रकारों की संख्या को गिनता है तो वह भी इसी गलती के कारण धौति के प्रकारों की कुल संख्या बारह ( 12 ) बताता है । जबकि वह कर्णरन्ध्र धौति के दूसरे अंग को भी इसमें शामिल करे तो धौति के प्रकारों की वास्तविक संख्या तेरह ( 13 ) होती है ।
दन्तमूल धौति
खादिरेण रसेनाथ मृत्तिकया च शुद्धया । मार्जयेद्दन्तमूलञ्च यावत्किल्बिषमाहरेत् ।। 27 ।।
भावार्थ :- खदिर ( खैर ) के वृक्ष से निकलने वाले रस व सूखी मिट्टी दोनों को आपस में मिलाकर उनके लेप को दाँतों के मूल भाग पर तब तक रगड़ते रहें जब तक कि दाँतों में लगी हुई गन्दगी ( मल ) पूरी तरह से दूर न हो जाए । विशेष :- यहाँ पर जिस सूखी मिट्टी की बात कही गई है । वह पूरी तरह से शुद्ध होनी चाहिए । इसके लिए चिकनी पीली मिट्टी का उपयोग करना सबसे उत्तम माना जाता है क्योंकि चिकनी पीली मिट्टी में किसी प्रकार का कोई दोष ( कीटाणु ) नहीं होता । हमें इसके लिए हमेशा एक बात का ध्यान रखना चाहिए कि जिस मिट्टी का प्रयोग किया जाए । वह मिट्टी सभी प्रकार की कीटनाशक दवाइयों के प्रभाव से मुक्त होनी चाहिए ।
दन्तमूल धौति लाभ
दन्तमूलं परा धौतिर्योगीनां योगसाधने । नित्यं कुर्यात् प्रभाते च दन्तरक्षां च योगवित् । दन्तमूलं धारणादिकार्येषु योगिनां मतम् ।। 28 ।।
भावार्थ :- योगी द्वारा की जाने वाली सभी योग साधनाओं में ( धौतियों में ) दन्तमूल धौति को श्रेष्ठ माना गया है । अपने दाँतों की रक्षा के लिए साधक को प्रतिदिन प्रातःकाल ( सुबह- सुबह ) दन्तमूल धौति का अभ्यास करना चाहिए । दन्तमूल धौति को योगियों द्वारा धारणीय कार्यों ( जिनको कार्यों को प्रतिदिन करना चाहिए ) में करने योग्य माना गया है ।
जिह्वामूल धौति लाभ
अथात: सम्प्रवक्ष्यामि जिह्वाशोधनकारणम् । जरामरणरोगादीन् नाशयेद्दीर्घलम्बिका ।। 29 ।।
भावार्थ :- इसके बाद मैं जिह्वा ( जीभ ) को लम्बी करने वाली, बुढ़ापा, मृत्यु, सभी रोगों को नष्ट करने वाली व जिह्वा को शुद्ध करने वाले कारण अर्थात् विधि का वर्णन करूँगा । विशेष :- इस श्लोक में ऋषि घेरण्ड ने जिह्वामूल धौति की विधि से पहले ही उससे होने वाले लाभों का वर्णन किया है ।
जिह्वामूल धौति विधि
तर्जनीमध्यमान्तानां अङ्गुलित्रययोगत: । वेशयेद् गलमध्ये तु मार्जयेल्लम्बिका जडम् । शनै: शनैर्मार्जयित्वा कफदोषं निवारयेत् ।। 30 ।।
भावार्थ :- तर्जनी ( पहली अँगुली ), मध्यमा ( दूसरी, सबसे बड़ी या बीच वाली अँगुली ) और अनामिका ( तीसरी अँगुली या रिंग फिंगर ) अँगुलियों को एकसाथ मिलाकर गले के बीच में स्थित जिह्वा के मूलभाग को धीरे- धीरे से रगड़ते हुए जीभ पर लगे मल ( गन्दगी ) को साफ करना चाहिए । इस प्रकार जीभ को शुद्ध करने से कफ विकार भी समाप्त होते हैं । विशेष :- जिह्वामूल धौति के लिए पहली तीन अँगुलियों से जीभ को रगड़कर साफ करने की बात कही गई है । हमारे हाथ की पहली अँगुली को तर्जनी, दूसरी को मध्यमा, तीसरी को अनामिका, चौथी को कनिष्का व अँगूठे को अँगुष्ठ कहा जाता है । यह सभी इनके संस्कृत नाम हैं ।
31
मार्जयेन्नवनीतेन दोहयेच्च पुनः पुनः । तदग्रं लौहयन्त्रेण कर्षयित्वा शनै: शनै: ।। 31 ।।
भावार्थ :- इसके उपरान्त जीभ के ऊपर मक्खन को रगड़कर बार- बार उसका दोहन ( उसे लम्बा ) करना चाहिए । फिर लोहे की चिमटी द्वारा जीभ के अग्र भाग ( अगले हिस्से ) को पकड़कर उसे धीरे- धीरे खीचना चाहिए ।
32
नित्यं कुर्यात् प्रयत्नेन रवेरुदयकेऽस्तके । एवं कृते च नित्यं सा लम्बिका दीर्घतां व्रजेत् ।। 32 ।।
भावार्थ :- साधक द्वारा प्रतिदिन सूर्योदय ( सूर्य के निकलते समय ) व सूर्यास्त ( सूर्य के छिपते समय ) के समय पर पूरे प्रयत्न ( मनोभाव ) के साथ इसका अभ्यास करने से जीभ की लम्बाई बढ़ जाती है ।
कर्ण धौति विधि व लाभ
तर्जन्यनामिकायोगान्मार्जयेत् कर्णरन्ध्रयो: । नित्यमभ्यासयोगेन नादान्तरं प्रकाशयेत् ।। 33 ।।
भावार्थ :- तर्जनी ( पहली अँगुली ) व अनामिका ( तीसरी, रिंग फिंगर ) दोनों अँगुलियों को मिलाकर इनके अग्रभाग से दोनों कानों की सफाई करना कर्णरन्ध्र धौति कहलाती है । प्रतिदिन कर्णरन्ध्र धौति का अभ्यास करने से साधक के अन्दर आन्तरिक नाद प्रकट ( सुनाई देने ) होने लगता है ।
कपालरन्ध्र धौति विधि व लाभ
बद्धाङ्गुष्ठेन दक्षणे मार्जयेद् भालरन्ध्रकम् । निद्रान्ते भोजनान्ते न दिवान्ते च दिने दिने ।। 34 ।।
भावार्थ :- दायें हाथ के अँगूठे से सिर के ऊपरी भाग का ( जहाँ पर छोटे बच्चों के सिर में एक अत्यन्य नाजुक स्थान होता है जो निरन्तर धड़कता रहता है ) प्रतिदिन प्रातःकाल, भोजन करने के बाद व दिन के अन्त में अर्थात् सायंकाल मार्जन ( हल्की मालिश द्वारा उसे शुद्ध करना ) करना कपालरंध्र धौति कहलाता है । विशेष :- कपालरंध्र धौति का अभ्यास साधक को दिन में तीन बार करना चाहिए । जिसका क्रम इस प्रकार है :- प्रातःकाल, दोपहर के भोजन के बाद व सांयकाल में । परीक्षा की दृष्टि से यह अत्यन्त उपयोगी है । परीक्षा में इस प्रकार की बात पूछी जा सकती है कि कपालरंध्र धौति का अभ्यास दिन में कितनी बार करना चाहिए ? इसका उत्तर है तीन बार । इसके साथ ही यह भी पूछा जा सकता है कि किस अंग से कपाल की शुद्धि करनी चाहिए ? व सिर के किस हिस्से की शुद्धि करनी चाहिए ? जिनके उत्तर क्रमशः दायें हाथ का अँगूठा व सिर का ऊपरी भाग हैं । अतः इसे सभी विद्यार्थी नोट करलें ।
कपालरंध्र धौति लाभ
नाडी निर्मलतां याति दिव्यदृष्टि: प्रजायते । एवमभ्यासयोगेन कफदोषं निवारयेत् ।। 35 ।।
भावार्थ :- कपालरंध्र धौति का नियमित रूप से अभ्यास करने से साधक की सभी नाड़ियाँ निर्मल ( शुद्ध ) हो जाती हैं । दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है और सभी कफदोषों की समाप्ति हो जाती है ।
हृदय धौति के प्रकार
हृद्धौतिं त्रिविधां कुर्याद्दण्डवमनवाससा ।। 36 ।।
भावार्थ :- हृदय धौति को तीन प्रकार से किया जाता है :- 1. दण्ड ( दण्डधौति ), 2. वमन ( वमन धौति ), 3. वास ( वस्त्र धौति ) ।
हृदय धौति के प्रकार
हृद्धौतिं त्रिविधां कुर्याद्दण्डवमनवाससा ।। 36 ।।
भावार्थ :- हृदय धौति को तीन प्रकार से किया जाता है :- 1. दण्ड ( दण्डधौति ), 2. वमन ( वमन धौति ), 3. वास ( वस्त्र धौति ) ।
दण्ड धौति विधि
रम्भादण्डं हरिद्दन्डं वेत्रदण्डं तथैव च । हृन्मध्ये चालयित्वा तु पुनः प्रत्याहरेच्छनै: ।। 37 ।।
भावार्थ :- केले के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग से, हल्दी के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग से या फिर वेंत के पत्तों के बीच के कोमल ( पाइपनुमा ) भाग को हृदय प्रदेश के बीच तक ( छाती के दोनों हिस्सो के बीचोंबीच ) ले जाकर पुनः उसे धीरे से बाहर निकालना दण्डधौति कहलाता है । विशेष :- दण्डधौति में बताई गई विधि को अच्छी प्रकार से समझने के लिए विद्यार्थी चित्र की सहायता ले सकते हैं । आजकल दण्डधौति के स्थान पर रबड़ की पाइप का प्रयोग किया जाता है । जिसे स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छा नहीं माना जाता ।
दण्ड धौति लाभ
कफपित्तं तथा क्लेदं रेचये दूर्ध्ववर्त्मना । दण्डधौतिविधानेन हृद्रोगं नाशयेद् ध्रुवम् ।। 38 ।।
भावार्थ :- दण्डधौति के अभ्यास से साधक के अन्दर कफ, पित्त व क्लेद ( दूषित चिपचिपा पदार्थ ) आदि की बढ़ी हुई मात्रा को शरीर के ऊपरी मार्ग ( मुहँ द्वारा ) बाहर निकाल दिया जाता है । जिससे साधक के हृदय से सम्बंधित सभी रोग निश्चित रूप से समाप्त हो जाते हैं । विशेष :- दण्डधौति से साधक के शरीर में कफ, पित्त व क्लेद ( दूषित चिपचिपा पदार्थ ) की अधिकता समाप्त हो जाती है । जिससे शरीर में इन सभी से सम्बंधित होने वाले रोगों की सम्भावना भी समाप्त हो जाती है ।
वमन धौति विधि व लाभ
भोजनान्ते पिबेद्वारि चाकण्ठ पूरितं सुधी: । उर्ध्वां द्रुष्टिं क्षणं कृत्वा तज्जलं वमयेत् पुनः ।। 39 ।। नित्यामभ्यासयोगेन कफपित्तं निवारयेत् ।। 40 ।।
भावार्थ :- बुद्धिमान साधक द्वारा भोजन करने के बाद ( भोजन करने के लगभग चार घण्टे बाद ) पानी को इतनी मात्रा में पीना चाहिए कि पानी गले तक भर जाए । इसके बाद कुछ पल तक साधक द्वारा ऊपर की ओर देखते हुए पुनः उस सारे पानी को बाहर निकाल देना चाहिए । यह वमन धौति कहलाती है । इस प्रकार वमन धौति का नियमित रूप से अभ्यास करने से साधक के कफ व पित्त से सम्बंधित सभी विकार ( रोग ) समाप्त हो जाते हैं । विशेष :- इस श्लोक में वमन धौति की विधि में लिखा है कि साधक को भोजन के बाद पानी पीकर उसे निकाल देना चाहिए । इसके विषय में सभी योग आचार्यों के अलग- अलग मत हैं । एक मत के अनुसार तो साधक को भोजन करने के तुरन्त बाद पानी पीकर इस क्रिया को करना चाहिए । यह क्रिया इसलिए न्यायसंगत नहीं लगती है क्योंकि ऐसा करने से तो सारा भोजन बाहर निकल जाएगा । साथ ही इस विधि का अभ्यास नियमित रूप से करने की बात कही गई है । जिससे इस विधि पर घोर शंका होती है । प्रतिदिन यदि ऐसा किया जाएगा तो शरीर अत्यंय कमजोर पड़ जाएगा । जब तक शरीर को पोषण के रूप में आहार प्राप्त नहीं होगा तो निश्चित रूप से उसका ( शरीर ) नाश हो जाएगा । इसलिए यहाँ पर ऋषि घेरण्ड इस प्रकार का कथन नहीं कह रहे हैं । इससे सम्बंधित एक अन्य क्रिया भी की जाती है जिसे आधुनिक योग आचार्यों ने व्याघ्र क्रिया का नाम दिया है । व्याघ्र क्रिया के प्रयोग के पीछे एक विशेष प्रयोजन होता है । कई बार हम गलती से गरिष्ठ, दूषित या ज्यादा मात्रा में भोजन ग्रहण कर लेते हैं । जिससे शरीर में नुकसान होने का खतरा बढ़ जाता है । उस खतरे से बचने के लिए व्याघ्र क्रिया का अभ्यास किया जाता है । इसे व्याघ्र क्रिया का नाम इसलिए दिया गया है क्योंकि शेर भी इसी प्रकार करता है । जब कई बार शेर अत्यधिक मात्रा में किसी प्राणी के मांस का सेवन कर लेता है तो वह उसको उल्टी करके बाहर निकाल देता है । ठीक उसी तर्ज पर इसे व्याघ्र क्रिया का नाम दिया गया है । अब इसके बाद कुछ योग आचार्यों का मानना है कि भोजन के बाद का अर्थ है भोजन करने के कम से कम चार घण्टे बाद इस क्रिया को करना चाहिए । ऐसा इसलिए कहा गया है कि भोजन को पचने में कम से कम तीन से चार घण्टे का समय लगता है । इसके बाद ( 3- 4 घण्टे ) बाद भी भोजन का जो अंश ( भाग ) नहीं पचा है । वह शरीर के अन्दर अपच को बढ़ाकर शरीर में अनेक प्रकार के विष उत्पन्न करता है । इसलिए उस बिना पचे हुए भोजन के अंश को वमन धौति के द्वारा बाहर निकाला जाता है । यह विधि पूरी तरह से तर्कपूर्ण व न्यायसंगत लगती है । इसलिए सभी साधक अपने विवेक से भी इसका विश्लेषण करें ।
वासधौति / वस्त्र धौति विधि
चतुरङ्गुलविस्तारं सूक्ष्मवस्त्रं शनैर्ग्रसेत् । पुनः प्रत्याहरेदेतत्प्रोच्यते धौतिकर्मकम् ।। 41 ।।
भावार्थ :- चार अँगुल चौड़ा बारीक कपड़ा लेकर उसे धीरे- धीरे गले से नीचे निगलते हुए अन्दर ले जाएं । उसके बाद पुनः उस कपड़े को धीरे- धीरे ही बाहर निकालें । इस क्रिया को वस्त्र धौति कहते हैं । विशेष :- इसके लिए एक हल्के बारीक सूती वस्त्र का प्रयोग किया जाता है । जिसकी चौड़ाई चार अँगुलियों के बराबर ( लगभग तीन इंच ) होती है और लम्बाई लगभग बाईस फीट होती है ( हठ प्रदीपिका के अनुसार ) । इसके लिए सर्वप्रथम साधक कागासन में बैठें और उसके बाद उस कपड़े की गोल पट्टी बनाकर उसे गुनगुने पानी में भिगो ले । फिर धीरे- धीरे उसे मुँह द्वारा अन्दर निगलना होता है । इसमें साधक को सावधानी रखनी चाहिए कि सूती वस्त्र को दाँतों से बचा कर रखे । वस्त्र धौति को ज्यादा समय तक पेट के अन्दर नहीं रखना चाहिए । पाँच मिनट के अन्दर ही उसे बाहर निकालना शुरू कर देना चाहिए अन्यथा शरीर के अन्दर धौति के पचने की क्रिया शुरू हो सकती है । जिससे बहुत हानि हो सकती है । अतः साधक इसका अभ्यास सदा योग्य गुरु की देखरेख में ही करे ।।
वासधौति / वस्त्र धौति लाभ
गुल्मज्वरप्लीहकुष्ठं कफपित्तं विनश्यति । आरोग्यं बलपुष्टिश्च भवेत्तस्य दिने दिने ।। 42 ।।
भावार्थ :- वस्त्र धौति के अभ्यास से शरीर के सभी वायु विकार ( गैस्टिक ), ज्वर ( बुखार ), प्लीहा ( स्प्लीन ), चर्म व कुष्ठ रोग ( त्वचा रोग ) व कफ और पित्त के असन्तुलन से होने वाले सभी रोगों का नाश हो जाता है । जिससे शरीर में आरोग्यता, मजबूती और शक्ति ( ताकत ) का प्रभाव दिन प्रतिदिन बढ़ता रहता है ।
Join Us On Social Media
Last Date Modified
2024-07-22 17:02:43Your IP Address
3.143.228.88
Your Your Country
Total Visitars
5Powered by Triveni Yoga Foundation